Deen Dayal Upadhyaya
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समाजवाद, लोकतंत्र अथवा मानवतावाद

- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 2 जनवरी, 1961)

यद्यपि भारत में समाजवादी विचार और समाजवादी पार्टियां उस समय से ही विद्यमान हैं जब से यूरोपीय विचारों ने यहाँ के शिक्षित लोगों को प्रभावित करना आरंभ किया, तथापि सैद्धांतिक रूप में समाजवाद यहाँ के निवासियों के राजनैतिक या सामाजिक जीवन में अपना कोई विशेष स्थान नहीं बना सका। परंतु, कांग्रेस के आवड़ी अधिवेशन के पश्चात् जिसमें कांग्रेस ने समाजवादी समाज रचना को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया, स्थिति बदल गई। जहाँ तक जन साधारण का प्रश्न है, वह आज भी उससे उतनी ही दूर है। कांग्रेस द्वारा समाजवाद के लक्ष्य को अपनाए जाने के बाद भी यह जनता का हृदय स्पर्श नहीं कर पाया है। जनता उसके प्रति उत्साहित नहीं है। परंतु ऐसा समझा जाने लगा है कि सरकार की नीतियां उसी के अनुरूप ढलती जा रही हैं और इस कारण जो सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने का विचार करते हैं उन्हें अवश्य चिंता हो गई है। आज इस विचारधारा के अनुयाइयों की संख्या के अनुपात में इसे कहीं अधिक महत्त्व प्राप्त हो गया है। साथ ही प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और सम्मान के कारण कुछ समय के लिए तो ऐसा लगने लगा है मानो समाजवाद यहाँ की जनता का सर्वप्रिय जीवन दर्शन हो गया हो। आज अपने-आप को समाजवादी कहना, एक फैशन-सा लगता है। समय के प्रवाह में बहनेवाली राजनीतिक पार्टियों में तो इस बात की होड़-सी लगी है कि उनमें से कौन अपने को समाजवाद का बड़ा पुरस्कर्ता सिद्ध कर सकता है। हिंदू महासभा भी हिंदू समाजवाद की बातें करने लगी है। वैदिक विचारकों ने भी पुराना साहित्य कुरेदकर 'वैदिक समाजवाद' की नई खोज कर डाली है।

समाजवाद के विभिन्न स्वरूप
इस देश में कांग्रेस, समाजवाद का नारा बुलंद करनेवाली प्रथम पार्टी नहीं है। कांग्रेस द्वारा समाजवाद स्वीकार किए जाने के पूर्व भी यहाँ समाजवादी पार्टियां थीं और आज भी है। विभिन्न समाजवादी पार्टियों के असंतुष्ट लोग भी अपने को समाजवादी ही कहते हैं। इतना ही नहीं, उनका तो दावा यह होता है कि वे जिस समाजवाद को मानते हैं वही अधिक शुद्ध है। इस स्थिति ने समाजवाद के बारे में और अधिक भ्रम बढ़ा दिया है। यूरोप में वैसे भी समाजवाद के अनेक प्रकार विद्यमान हैं। रूजवेल्ट, हिटलर, मुसलिनी और स्टालिन सभी अपने-आपको समाजवादी कहते थे।
ऐसे भी लोगों की कमी नहीं, जिन्होंने स्वयं प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रहने के बाद भी अनेक प्रकार के समाजवादी सिद्धांतों की रचना कर डाली है। भारत में इन सभी प्रकार के समाजवादी पंथों के अनुयायी विद्यमान हैं। कुछ इस प्रकार के भी प्रयास यहाँ होते रहे हैं जिसमें यूरोपीय समाजवाद को भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के अनुरूप ढालकर स्वीकार करने का आग्रह रहा हो।
बाबू जयप्रकाश नारायण आज भी समाजवादी बने हुए हैं। एम.एन. राय ने अपने जीवन के अंतिम काल में समाजवाद का पूर्णत: त्याग कर दिया था तथापि मृत्यु के समय भी वे रेडिकल सोशलिस्ट ही कहलाए। उन राजनीतिज्ञों के साथ-साथ जो बिना समझे-बूझे किसी भी समय कोई भी बात कह सकते हैं, अन्य सिद्धांतवादी और राजनीतिज्ञों ने भी इस समाजवाद के बारे में ऐसी धारणाएँ पैदा कर दी हैं कि लोग यही नहीं समझ पाते कि वे हैं कहाँ पर।

प्रेरणा का मूल स्रोत
एक बार ऐसा व्यंग्य किया गया था कि समाजवाद कोई जीवन-दर्शन नहीं अपितु एक अटपटी वृत्ति मात्र है। यदि हम समाजवादियों के विचारों का विश्लेषण करें तो बहुत अंशों तक यह उक्ति सही प्रतीत होगी। सभी समाजवादियों की यह एक सर्वमान्य अभिलाषा है कि साधारण मनुष्य का जीवन-स्तर उठया जाए। वे उन लोगों के विरुद्ध, जिन्हें वे कामचोर मानते हैं या मजदूरों के उचित लाभांशों की प्राप्ति में बाधक समझते हैं, मेहनतकश मजदूरों का मक्ष ग्रहण कर लेते हैं। हमें शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वामी विवेकानंद जी ने भी अपने-आपको समाजवादी कहते थे और अपनी मान्यताओं की पुष्टि में बहुत कुछ इसी प्रकार के तर्क भी देते थे। एक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि 'मैं भी एक समाजवादी हूँ।' इसलिए नहीं, कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु इसलिए कि मैं समझता हूँ कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है। सुख-दु:ख का पुनर्विभाजन सचमुच ही उस स्थिति से अधिक श्रेयस्कर होगा जिसमें निश्चित व्यक्ति ही सुख या दु:ख के भागी होते हैं। इस कष्टपूर्ण संसार में प्रत्येक को अच्छा दिन देखने का अवसर मिलना ही चाहिए। बुभुक्षितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति और समाज में उन्हें समान स्तर और सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त करा देने की यह इच्छा आज भी प्रत्येक समाजवादी को प्रेरणा देती है।

उनकी सदिच्छा सराहनीय है। इस दु:ख और कष्टों से परिपूर्ण विश्व में, असमानता, अन्याय, दु:ख, कष्ट, उत्पीड़न, प्रताड़न, दासत्व, शोषणा, क्षुधा और अभाव को देखकर कोई भी व्यक्ति जिसे मानवीय अंत:करण प्राप्त है, समाजवादी वृत्ति अपनाए बिना नहीं रह सकता। परंतु समाजवाद यहीं तक सीमित नहीं हैं। यह ठीक है कि वह इस दु:खपूर्ण स्थिति का अंत चाहता है। उसने स्थिति का विश्लेषण किया है, रोग का निदान किया है और उसके लिए औषधि की योजना भी की है। यहाँ पर उन्हें मार्क्स का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता है। उसने अपने समकालीन समाजवादी विचारों को एकत्रित कर एक ऐसी विस्तृत विचार-सारणी प्रस्तुत की जो आगे आनेवाली पीढ़ियों को भी आकर्षित करने की क्षमता रखती थी। मार्क्स से विचार भिन्नता रखनेवाले समाजवादी भी उसके अकादय तर्कों को खंडन नहीं कर पाते थे। उसने एक करणीय योजना प्रस्तुत की और बोल्शेविकों ने उस स्वप्न को साकार करने के लिए सफलतापूर्वक रूस की सत्ता पर अधिकार कर लिया। बोल्शेविक क्रांति से लेकर आज तक का रूस का इतिहास विभिन्न क्षेत्रों में अनेक सफलताओं के बावजूद इस पद्धति की अपूर्णता का ही द्योतक रहा है।

लोकतंत्र पर हमला
समाजवाद का पहला हमला हुआ लोकतंत्र पर। लौह आवरण के पीछे रहनेवालों को छोड़कर समस्त विश्व के समाजवादी विचारक आतंकित हो उठे। उन्हें लोकतंत्र में आस्था थी। सच पूछा जाए तो लोकतांत्रिक आदर्शों के कारण ही उन्हें जनसाधारण के प्रति सहानुभूति थी और वे उसके कारे की बात करते थे। लोकतंत्र ने ही उन्हें राजनैतिक समानता प्रदान की थी। पर वैज्ञानिक अंवेषणों और यंत्रीकृत उत्पादन पद्धति ने उन्हें आर्थिक विषमता के गङ्ढे में ढकेल दिया। परिणामत: ऐसी राजनैतिक परिस्थिति में समानता का कोई महत्त्व न रहा। मार्क्स ने वर्गविहीन समाज का नारा लगाया। अंतरिम अवधि तक मजदूरों के अधिनायकवाद की बात कही गई। इसमें संदेह की पूरी गुंजाइश थी। लोगों को एक संदिग्ध वस्तु की प्राप्ति के लिए उस चीज (राजनैतिक समानता) का त्याग करने को कहा गया जो उन्हें पहले से ही प्राप्त थी। उन्हें इस बात की किंचित भी कल्पना नहीं थी कि समाजवाद उन्हें पहले से ही प्राप्त वस्तु भी छीन लेगा। वे तो पहले से ही अभावग्रस्त थे। समाजवाद के द्वारा उन्हें कुछ प्राप्त होना चाहिए था, न कि उनके पास के पूर्व ही समाजवाद ने उनके व्यक्तिगत स्वाधीनता और राजनैतिक समानता का अपहरण कर लिया। 28 अप्रैल, सन् 1919 में ही प्रिंस क्रोपाटकिन ने पश्चिमी यूरोप के मजदूरों के नाम एक पत्र में लिखा -

I owe it to you to say frankly that according to my view, this effort to build a communist republic on the basis of a strongly centralised state, communism under the iron law of party dictatorship is bound to end in faiure. We are learing to know in russia how not to introduce communism. As long as the country is governed by a party dictatorship, the worker and peasants.
Lose their entire Significence. It (USSR) develops a bureaucracy so formidable, that French bureaucracy which requires the help of fourty officials to sell a tree, broken down by a storm on the national high way is a mera begalle in comparision.

'मैं आपको स्पष्ट रूप से यह बताना अपना दायित्व समझता हूँ कि मेरे विचार से सुदृढ़ केंद्रित शासन व्यवस्था के आधार पर, दलीय तानाशाही के फौलादी शिकंजे के नीचे, साम्यवादी गणतंत्र निर्माण करने का प्रयास असफलता के रूप में ही सामने आएगा।' रूस से हम इस बात को सीख रहे हैं कि साम्यवाद को प्रवेश करने से कैसे रोका जाए। जब तक देश में दलीय तानाशाही का शासन कायम है तब तक किसान और मजदूर परिषद अपना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं बना सकतीं वे अपना समस्त वैशिष्टय ही खो बैठेंगी। रूसी गणराज्य आज एक ऐसी अभेय नौकरशाही को जन्म दे रहा है जिसके सम्मुख वह फ्रांस की नौकरशाही भी मात हो जाएगी जिसमें कहीं रास्ते में आंधी से गिरे हुए पेड़ को बेचने के लिए भी चालीस सरकारी अधिकारियों की आवश्यकता पड़ती है।

सहअस्तित्व असंभव
यूरोपीय समाजवादियों के नए प्रयासों ने उस तत्त्व को जन्म दिया, जिसे आज जनतांत्रिक समाजवाद का नाम दिया गया है। वे कम्युनिस्टों से मतभिन्नता रखते हुए यह प्रतिपादित करते रहे कि समाजवाद का प्रादुर्भाव जनतांत्रिक ढंग से होना चाहिए। वे एक साथ समाजवाद और जनतंत्र दोनों की आराधना करना चाहते हैं। पर मूल प्रश्न तो यह है कि क्या समाजवाद और जनतंत्र एक साथ पनप भी सकते हैं। सिद्धांतवादी इस प्रश्न पर आशाविंत हैं। पर प्रगतिवादी इस पर विश्वास नहीं करते। समाजवद इस बात का हामी है कि उत्पादन के समस्त स्रोत राज्य के अधीन होने चाहिए। चूँकि समाजवादी यह समझते हैं कि समाज का राजनैतिक,  बौद्धिक और सामाजिक जीवन उसके उत्पादन के स्रोतों  के द्वारा ही ढलता है, अत: समाजवादी व्यवस्था में राज्य का, आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ राजनैतिक एवं अन्य क्षेत्रों में भी, पूर्ण विर्चस्व रहना आवश्यक है। इससे एक ऐसी स्थिति पैदा होगी जब उन लोगों के विरुद्ध जो शासन में हैं लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रभावपूर्ण ढंग से प्रयोग करना संभवनीय नहीं होगा। समाजवादी बंदूक की गोली का पहला शिकार निश्चित रूप से कोई लोकतंत्रवादी ही होगा। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते शेर-बकरी का एक ही घाट पर पानी पी सकना असंभव है।

गोली का पहला शिकार लोकतंत्रवादी होगा
आज समाजवादी खेमे में व्याप्त भ्रमपूर्ण स्थिति के लिए बहुत अंशों तक यह सिद्धांत ही जिम्मेदार है अब तक कोई भी विचारक ऐसा सर्वांगपूर्ण दोषरहित चित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका है जिसमें इन दोनों तत्त्वों का सह अस्तित्व संभव हो सके। इसमें भी, यदि हम लोकतंत्र के विभिन्न स्वरूपों और मर्यादाओं के साथ-साथ भिन्न-भिन्न देशों के विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक ढाँचे और भिन्न-भिन्न प्रकार के भौतिक एवं आर्थिक विकास के स्तरों पर विचार करें तब तो यह भ्रम के बादल और भी घनीभूत हो जाते हैं। इस भ्रजमाल की जटिलता के कारण यह गुत्थी इतनी उलझती जाती है कि जिसका सुलझना असंभव सा हो जाता है।
गैरसमाजवादी देशों ने भी समाजवादियों के भ्रम को बढ़ाने का ही कार्य किया है। विगत तीस वर्षों में अपनी उदारवादी नीतियों एवं नवीन आर्थिक चिंतन के कारण उन्होंने समाजवादियों को हतप्रभ-सा कर डाला है। आज अमेरिका या इंग्लैंड का सर्वसाधारण व्यक्ति, किसान और मजदूर जिसे साम्यवादी परिभाषा के अनुसार सर्वहार कहा जाता है, सौ वर्ष पूर्व की तथाकथित उत्पीड़ित अवस्था में नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर कल्याणकारी राज्य के आदर्श प्रस्थापित हो रहे हैं। पूँजीवादी ओर समाजवादी दोनों ही प्रकार के देशों के बारे में मार्क्स की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हुई है। कल के पूँजीवादी देशों ने अपनी पद्धति में विकास किया है और आज वे भौतिक विकास में समाजवादियों से टक्कर लेने को उद्यत हैं, पर समाजवाद आज भी उसी स्थान पर ही अड़ा हुआ है जहाँ से उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। यदि उसने कुछ पग आगे बढ़ाए भी हैं तो वे सही दिशा में नहीं बढ़े हैं। इसके विपरीत पूँजीवादी देशों में लोकतंत्र होने के कारण अपनी भूलों को सुधारने एवं नवीन बातों को स्वीकार करने की सिद्धता रहती है। पर समाजवादियों के समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण में इस प्रकार के लचीलेपन का अभाव है। यह विचारधारा किसी प्रकार के नवीन चिंतन की प्रेरणा नहीं देती। मसीहाबाद और अपरिवर्तनीय अंधविश्वासों पर आधारित मजहब के अनुयायी की तरह कट्टर समाजवादी नए स्वतंत्र विचारों से दूर ही रहना पसंद करता है। यही कारण है कि कम्युनिस्टों के शब्दकोश में ऐसे विचारकों के लिए अनेक प्रकार की गालियां भरी रहती हैं। परंतु विचारशील मानव विचाररहित नहीं हो सकता। यदि उसकी विचार तंरगों को योग्य दिशा देने की कोई योजनाबद्ध व्यवस्था न रही तो उसका अनिवार्य परिणाम चतुर्दिक भ्रम के रूप में सामने आए बिना नहीं रह सकता।

यह कैसा विरोध?
आज भारत में समाजवाद के बारे में जो वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ है वह प्रमुख रूप से राजकीय उद्योगों के विस्तार की अनिवार्यता या व्यथ्रता के ऊपर ही केंद्रित है। स्वतंत्र उद्योगों के पुरस्कर्ता एवं समाजवादी विचारक एक-दूसरे के विरुद्ध ताल ठोककर खड़े हो गए हैं। पर साथ ही एक मजेदार तथ्य यह है कि दोनों एक-दूसरे के लिए पर्याप्त और न्यायसंगत क्षेत्र को खाली छोड़ने के लिए तत्पर भी हैं। अविकसित अर्थ-व्यवस्था में सरकार को कुछ ऐसे उद्योगों को भी अपने हाथ में लेना पउता है जो कदाचित साधारण अवस्था में स्वतंत्र लोगों के हाथ में छोड़े जा सकते थे। साथ ही किसी नियोजित अर्थ-व्यवस्था में स्वतंत्र उद्योगपतियों को वैसी खुली छूट भी नहीं दी जा सकती जैसी शताब्दियों से पश्चिम के लोग उपयोग करते रहे हैं। सच पूछा जाए तो यह स्पर्धा यदि नियंत्रित रखी गई, तो दोनों में योग्य संतुलन स्थापित करने में सहायक हो सकती है। समस्याओं का सामना करते समय समाजवादी, स्वतंत्रों की श्रेणी में आ बैठता है और स्वतंत्र समाजवादी खेमे में।

साध्य के अनुरूप साधन हों
पर प्रमुख समस्या यह नहीं है कि हम समाजवाद को स्वीकार करें या उद्योगों की स्वतंत्रता के सिद्धांतों को। समाजवाद और लोकतंत्र की आपस में तुलना नहीं की जा सकती, पर हमारे लिए ये ही विकल्प के रूप में नहीं हैं। वे साधन मात्र हैं, साध्य नहीं। तब फिर साध्य क्या हो? हमें पहले गंतव्य निर्धारित कर, फिर मार्ग का निर्धारण करना चाहिए। सभी विचारशील मनुष्यों ने मानव कल्याण को साध्य माना है। पर दुर्भाग्य यह है कि अभी तक मनुष्य मनुष्य को ही समझते में असमर्थ रहा है। मानव को सुखी व संपन्न बनाने के प्रयास में समाजवाद एवं लोकतंत्र, दोनों ने ही उसको एक वीभत्स स्वरूप दे डाला है। उन्होंने उसकी समस्त विशेषताओं को उससे छीन लिया है। रेनेफुलप ने 'डी ह्यूमनाइजेशन इन मार्डन सोसाइटी' नामक अपनी पुस्तिका में लोकतंत्र एवं समाजवाद के इस पहलू का विशुद्ध विवेचन किया है। वह लिखता है-
‘Democracy, although it gave us right to vote, trial by jury, a free prees, religious freedom, the freedom to chose their jobs and the freedom to speak their mind, it also gave us the economic man.’

(यद्यपि, जनतंत्र ने हमें मत देने का अधिकार, न्याय पाने का अधिकार, विचार स्वातंत्र्य, धार्मिक स्वातंत्र्य, स्वयं का पेशा निर्धारित करने की स्वतंत्रता और भीषण स्वातंत्र्य प्रदान किया है, पर साथ ही उसने हमें एक 'आर्थिक मानव' की कल्पना भी दी है)
इस कल्पना ने पूँजीवाद को जन्म दिया जहाँ अधिकाधिक उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर तो अत्यधिक बल दिया गया पर सोद्देश्य जीवन व्यतीत करने की क्षमता बढ़ाने की ओर पूर्ण दुर्लक्ष्य कर दिया गया। दूसरी ओर समाजवाद या साम्यवाद ने सामूहिक सुरक्षा एवं मजदूर वर्ग के हितों के संरक्षण का नारा लगाया, पर इसी के साथ-साथ उसने युद्ध 'पिपासु मानव' को जन्म दिया। यह युद्ध लोलुप मानव, समाजवादी राज्य की ही देन है। उसे न विचार करने की स्वतंत्रता प्राप्त है न स्वयं के निर्णय करने की। इस व्यवस्था के अंतगर्त मानव जीवन का मूल्य एक निरीह पशु से अधिक नहीं आंका जाता।

मशीन की गुलामी का अंत आवश्यक
समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही मानव के भौतिक स्वरूप और आवश्यकताओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है और दोनों की आधुनिक विज्ञान और यांत्रिक उन्नति पर अत्यधिक श्रद्धा है। दोनों ही इन वर्तमान अविष्कारों के शिकार से हो गए हैं। परिणाम यह है कि उत्पादन के साधनों का निर्धारण, मानव कल्याण और उसकी आवश्यकताओं के अनुसार नहीं किया जा रहा है, बल्कि उनका निर्धारण यंत्रों के अनुसार करना पड़ रहा है। उत्पादन की केंद्रित व्यवस्था में, फिर उसका नियंत्रण चाहे व्यक्ति द्वारा हो अथवा राज्य द्वारा, मानव के स्वतंत्र व्यक्तित्व का लोप हो जाता है। मशीन के एक पुर्जे से अधिक उसका महत्त्व ही नहीं रहता। यदि हमें मनुष्य के मनुष्यत्व की रक्षा करनी है तो हमें उसे मशीन की गुलामी से मुक्त करना होगा। आज व्यक्ति मशीन पर शासन नहीं करता, मशीन मनुष्य पर शासन कर रही है। इस मशीन-प्रेम के मूल में मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को अधिकाधिक मात्रा में तृप्त करने की भावना ही निहित है। पर हम यह न भूलें कि केवल भौतिक समृद्धि मात्र से मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। भौतिक साधनों से संपन्न राष्ट्रों की समस्याएँ भी आज हमारे सम्मुख हैं। हमें संपूर्ण मानव जीवन का विचार कर, उत्पादन, वितरण और उपभोग को एक इकाई मानकर चलना पड़ेगा। हमें एक ऐसी पद्धति का निर्माण करना होगा, जिसमें मनुष्य उत्पादन और उपभोग करते समय एक सार्थक जीवन व्यतीत करने का भी ध्यान रखता है। मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं का समुच्चय मात्र ही नहीं है। उसकी कुछ आध्यात्मिक आवश्यकताएँ भी हैं। जो जीवन-पद्धति मानव-जीवन के इस आध्यात्मिक पहलू की उपेक्षा करती हो वह कदापि पूर्ण नहीं हो सकती। यहाँ हमें इस बात का स्मरण रखना होगा कि भौतिक उन्नति के साथ आध्यात्मिक प्रगति की कल्पना केवल हवाई उड़ान ही नहीं है। मानव की गरिमा को सुरक्षित रखते हुए समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का दायित्व भी निभाना ही होगा। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही एकांगी मार्ग स्वीकार किया है, और मनुष्य की इन दो भिन्न प्रवृत्तियों का समुचित सामंजस्य बिठाकर उसके व्यक्तित्व का विकास करने के स्थन पर एक भ्रमपूर्ण स्थिति पैदाकर विभिन्न शक्तियों के लिए एक युद्ध-स्थल तैयार कर दिया है।

तरणोपाय
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों पर आधारित हिंदूजीवनादर्श ही हमें इस संकट से उबार सकते हैं। विश्व की समस्याओं का उत्तर समाजवाद नहीं, हिंदुत्ववाद है। यही एक ऐसा जीवन दर्शन है जो जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नहीं बाँटता अपितु संपूर्ण जीवन को एक इकाई मानकर उसका विचार करता है। यहाँ पर हमें हिंदू-जीवनादर्शों का विचार करते समय कुछ निष्प्राण कर्मकांड के साथ अथवा हिंदू समाज में व्याप्त अनेक अहिंदू व्यवहारों के साथ उसका संबंध नहीं जोड़ना चाहिए। साथ ही यह समझना भी भारी भूल होगी कि हिंदुत्व वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति का विरोधी है। विज्ञान और यंत्र इन दोनों का उपयोग इस पद्धति से होना चाहिए जिससे वे हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पद्धति के अनुरूप हों।

महात्मा गांधी के विचारों को अनुसरण कर विनोबा, जयप्रकाश नारायण और राजगोपालाचार्य ने ट्रस्टीशिप का विचार सम्मुख रखा है। यह हिंदू जीवन-पद्धति के अनुसार ही है। यह एक ऐसा विचार है जो समाजवादी और गैर-समाजवादी दोनों ही समाजों के लिए समान रूप से उपयोगी हो सकता है। पर यदि हम पाश्चात्य-यंत्र प्रणाली का अंधानुकरण करते रहे तो सर्वोदय या समाजवाद दोनों ही न हमारी संस्कृति का संरक्षण कर सकेंगे न हमारे सम्मुख उपस्थित समस्याओं का समाधान ही कर सकेंगे। हमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सैद्धांतिक सभी मोर्चों पर इस यंत्रवाद का सामना करना पड़ेगा। हमें धर्मराज्य, लोकतंत्र, सामाजिक समानता और आर्थिक विकेंद्रीकरण को अपना लक्ष्य बनाना होगा। इन सबका सम्मिलित निष्कर्ष ही हमें एक ऐसा जीवन-दर्शन उपलब्ध करा सकेगा जो आज के समस्त झंझावतों में हमें सुरक्षा प्रदान कर सके। आप इसे किसी भी नाम से पुकारिए, हिंदुत्ववाद, मानवतावाद अथवा अन्य कोई भी नया वाद, किंतु यही एकमेव मार्ग भारत की आत्मा के अनुरूप होगा और जनता में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। संभव है विभ्रांति के चौराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्ग-दर्शक का काम कर सके।

Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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